तुम्हारा नाम
पैदा करता है
नजरों में ठहराव
किसी भी गणित से परे
बार-बार तुम्हारा नाम
क्यूँ टकराता है मुझसे ?
कभी गली के किसी मोड़ पर
चौराहे की चहल-पहल
या राह चलते किसी घर पर
ठिठक जाती हैं नजरें
विमुग्ध हो जाती हूँ मैं,
हथेली पर बहुधा
लिखती हूँ तुम्हे
छू लेती हूँ हौले से
भर लेती हूँ ऊर्जा,
अक्सर किताबों में
लिख देती हूँ तुम्हे
घर की दीवारों पर
बिना लिखे ही दिखता है
तुम्हारा नाम
तुम्हारे नाम के नीचे
लिख देती हूँ अपना नाम
और मेरी संवेदना पा लेती है
सामीप्य का एहसास,
तुम्हारा नाम लिख कर
सुंदर अल्पना में छुपा देती हूँ
और तुम्हारी उपस्थिति
भर देती है प्राणों में उल्लास,
तुम्हारा नाम
मानो पूरी परिधि वाला कवच
मैं बड़ी निश्चिंत हूँ उसके भीतर.
तुम्हारा नाम पैर गुलज़ार साहेब की ये पंक्तियाँ याद आईं
ReplyDelete--------------तुम ऐसे में बशारत बन के आते हो
और अपनी ले के जादू से हमारी टूटती साँसों से इक़
नगमा बनाते हो की जैसे रात की बंजर स्याही से सहर फूटे ......... तुम्हारा नाम बहुत सुंदर लिखा है
खुशियों की बरसात हो तुझ पर
ReplyDeleteजिसके नाम का पास है तुझको
उसके प्यार की बरसात हो तुझ पर
गीता जी इस खजाने से मैं अब तक महरूम क्यों था आज पहली बार आपके ब्लाग पर आया बहुत ही अच्छा लिखते हो शुभकामनाएं
ReplyDeleteसुशीला जी
ReplyDeleteतुम्हारा नाम..बहुत सुंदर रचना है. हम औरतें नाम कहां कहां नहीं छुपाती.छुपाना ही तो सीखा है..छुप छुप कर प्रेम का रोमांच ही कुछ और..
खूब लिखें..
गीताश्री
एक पुराना शेर याद आ गया
ReplyDeleteये कैसी अजब दास्ताँ हो गई है
छुपाते छुपाते बयाँ हो गई है
पर आपने तो बडी खूबसूरती से छुपा रखी है.
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ReplyDeleteएक आह सी उठती है , तेरे नाम के साथ ,
ReplyDeleteहमको तकलीफ है मगर आराम के साथ ।
क्या कहे तुम्हारी कवीता बहुत खुबसूरत है ....... बधाई
अच्छी कविता...बधाई....और लिखें खूब लिखें....लिखते लिखते ही और अच्छा लिखा जा सकता है।
ReplyDeleteआपकी कविता का शिल्प विस्मयकारी हैं प्रोफाईल में गृहणी पढ़ने के बाद समझ ही नहीं आता...आपके शब्दों में झांकती है निपुणता, बेहद प्रभावी कविता बधाई
ReplyDeleteआपके पास एक सम्प्रेषणीय भाषा है और सम्वेदना भी। यह कविता ढेरो उम्मीदे जगाती है।
ReplyDeleteशुभकामनाये तथा मौन पर प्रतिक्रिया के लिये आभार।
आपने मेरे प्रिय कवी नरेश सक्सेना जी की एक कविता उद्धृत की थी. गिरो आंसू की एक बूंद की तरह
ReplyDeleteकिसी के दुःख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह खाली करते हुए''
इसी कविता का स्मरण दिलाते हुए आपको नहुत बहुत शुभकामनाएं
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद
ReplyDeleteकविता की पंक्तियों में छुपा भाव अब छिपा नही रहा अलबत्ता आपने उसे बहुत छिपाने की कोशिश की....
ReplyDeleteअच्छी कविता लिखी है आपने....
bahut achi rachna hai...
ReplyDeleteYe kaisi ajab dastaa ho gayi hai,
ReplyDeleteChupate chupate bayaa ho gayi hai.
Sunder Rachna ke liya badhai
Priti
एक से एक!
ReplyDeletebahut khoobsurat hai ...sausheela jee
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार ..............
ReplyDelete"तुम्हारा नाम
ReplyDeleteमानो पूरी परिधि वाला कवच
मैं बड़ी निश्चिंत हूँ उसके भीतर."
बहुत अच्छी लाइने हैं .. लेकिन नाम का कवच कब पुरुषत्व के अहम् का कवच बन जाता है पता नहीं चलता !
बिलकुल सही कहा आपने .......कवच कब अहम् बन जाता है ?
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखती हैं आप.
ReplyDelete--आप ने अपने परिचित किन्हीं लेखक के बारे में जिक्र किया था..
सुशीला जी ,यूँ तो मैं अबू धाबी के ही एक शहर में रहती हूँ मगर
यह शहर मुख्य शहर से बहुत दूर है.इस लिए अबू धाबी प्रोपर में
रहने वालों के बारे में जानकारी मुझे बहुत कम है.
यहाँ एक हिंदी की कहानीकार हैं नाम सुना है .[अभी नाम याद नहीं आ रहा].
और श्री अरविन्द व्यास जी हैं जो हिंदी के कवि हैं.
आप किन के बारे में बात कर रही हैं?नाम बतायेंगी तो मालूम चल पायेगा.
शुक्रिया.
आपकी ये कविता भी बहुत खुबसूरत है...एक
ReplyDeleteनाम के भीतर अपने को निश्चिंत करने
का अहसास बहुत खुबसूरत है...
लिख देती हूँ अपना नाम
और मेरी संवेदना पा लेती है
सामीप्य का एहसास,
सचमुच
प्यार के नाम में यही ताकत
होती है.......अमरजीत कौंके
शब्दों की सौन्दर्य शक्ति
ReplyDeleteशायद सिद्ध है आपको
इसलिए लिखते हो बिंदास ,
फूंक देते हो शब्दों में उल्लास
अल्पनाओं सी कल्पनाएँ
कर देतीं हैं बिमुग्ध
भर देतीं हैं उर्जा
तब गा सकता है कोई भी
अपने प्रेम गीत
जीवन की रीत
मनमीत और कiल पर जीत
बधाई
बिना लिखे ही … बिना दिखे ही … किसी के होने का एहसास सुखद भी है … पर बेचैन भी कर देता है कभी कभी …!
ReplyDeleteतुम्हारा नाम-अपनाया गया कवच है विश्वास नाम के भाव का.
ReplyDeleteअदभुत भावाभिव्यक्ति है !