मेरे मन के समंदर में
ढेर सारा नमक था
बिलकुल खारा
स्वादहीन
उन नोनचट दिनों में
हलक सूख जाता थी
मरुस्थली समय
जिद्द किये बैठा था
नन्हें शिशु सी मचलती थी प्यास
मोथे की जड़ की तरह
दुःख दुबका रहता था भीतर
उन्ही खारे दिनों में
समंदर की सतह पर
मेरे हिस्से की मिठास लिए
छप-छप करते तुम्हारे पांव
चले आये सहसा
और नसों में घुल गया चन्द्रमा .
बहुत सुंदर रचना, बधाई!
ReplyDeleteबहुत खूब सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत -२ धन्यवाद
sushila ji ap bahut khubsurat likhte ho....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया व सुन्दर रचना है।बधाई।
ReplyDeleteउन्ही खारे दिनों में
ReplyDeleteसमंदर की सतह पर
मेरे हिस्से की मिठास लिए
छप-छप करते तुम्हारे पांव
चले आये सहसा
और नसों में घुल गया चन्द्रमा .....
बहुत ही लाजवाब रचना ........ गहरे भाव .........
नन्हें शिशु सी मचलती थी प्यास
ReplyDeleteमोथे की जड़ की तरह
दुःख दुबका रहता था भीतर............
ये प्यास ! ये दुःख ! यही तो सेतु है !
जिससे सब बचना चाहते हैं ! सुशीला जी !
हम आपके शुक्रगुजार हैं ,जिस सत्य को
आपने कविता के माध्यम से कह डाला !
bahut dino baad aap ki kavita aayi..
ReplyDeletebehad bhaav poorn...
bahut sundar ahsaas liye..
मोठे की जड़ सा दुःख !! ऐसा की मिटाए न मिटे और जब इतना खारापन कि नमक ही नमक .....ऐसे में छप छप की ध्वनि के साथ किसी के समुद्र की सतह तक आ जाने की अनुभूति कितनी उल्लासमय है और मेरे हिस्से की मिठास परम संतुष्टि की अभिव्यक्ति है ! चंद्रमा की शीतलता नसों में समां जाए तो जीवन सार्थक है ! तुम्हारी रचना मन में प्राण भरती है ! ऐसी सुंदर अनुभूति और अभिव्यक्ति के लिए तुम्हेंबहुत बधाई !
ReplyDeleteचन्द्रमा सी शीतलता और मधु सी मिठास लिए आपकी रचना ने मन को बहुत सुख दिया, सदा की भाँति.
ReplyDeleteaapke shabdon me vo jadoo hai ki koi bhi bandha chala aaee....har baar kee tarh ek aur shaandaar rachna....badhaiii...bahut bahut
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना है।
ReplyDeletepls visit...
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मोथे की जड़ की तरह
ReplyDeleteदुःख दुबका रहता था भीतर
उन्ही खारे दिनों में
समंदर की सतह पर
मेरे हिस्से की मिठास लिए
छप-छप करते तुम्हारे पांव
चले आये सहसा
और नसों में घुल गया चन्द्रमा .
Sundar bhavon se saji aapki kavita bahaut achhi lagi.
Shubhkamnayen.
खारापन एक आहट से बह गया.
ReplyDeleteसुन्दर रचना
Nishabd hoon.
ReplyDeleteNav varsh ki dher sari shubkamnayen.
मुझे लिखनी होती अगर यह लाजवाब कविता तो इस तरह लिखता
ReplyDeleteमेरे मन के समुद्र में
पहाड़ों नमक था
उन नॉनचाट दिनों में
हलक सूख जाता था
मरुस्थली समय
जिदद किये बैठा रहता
नन्हे शिशु सी मचलती प्यास
मोथे की जड़ सा दुःख
दुबका रहता कहीं भीतर
उन्हीं खारे दिनों में
समुद्र की सतह पर
मेरे हिस्से की मिठास लिए
छप छप करते तुम्हारे पांव
चले आये सहसा
नसों में जैसे
चन्द्रमा घुल गया . . .
नहीं अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए नहीं लिखी ये टिपण्णी सिर्फ कविता के प्रति मुझमें एक अजीब किस्म का जनून सा है उसके कारण लिखी गई है... अन्यथा न लें.. आपकी यह रचना सचमुच काबिले तारीफ़ है
नसों में चन्द्रमा घोल दिया-- वाह।
ReplyDeleteनया साल मुबारक।
नये साल में नयी पोस्ट आये भाई!
उन्ही खारे दिनों में
ReplyDeleteसमंदर की सतह पर
मेरे हिस्से की मिठास लिए
छप-छप करते तुम्हारे पांव
चले आये सहसा
और नसों में घुल गया चन्द्रमा.
प्रशंसनीय और वंदनीय.
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete'मेरे हिस्से की मिठास'कथ्य एवं कला दोनों ही नज़रिये से बहुत ही अच्छी और मार्मिक कविता है। दिल को छू गयी। पढ़कर लगा जैसे मेरे अंतस् के मौन को ही कवयित्री ने शब्दों में पिरो दिया है,जो मैं नहीं कह सका,उसे कवयित्री ने कह दिया है। हार्दिक धन्यवाद।
ReplyDeleteलक्ष्मीकांत त्रिपाठी
आत्मसंतुष्टि से भरी हुई कविता, इसका लिखा जाना ज़रूरी था..
ReplyDeleteखारापन एक आहट से बह गया.
ReplyDeleteसुन्दर रचना