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Thursday, November 12, 2009

इस असंभव समय में

मेरी प्यास
गहरे समंदर में उतर जाती है
जब कहते हो तुम
आओ !
आ जाओ पास ,
नभ का अनंत विस्तार लिए
मेरी निजता
दुबक जाती है
तुम्हारी गोद में
और कई कई आंखों से
देखती हूँ तुम्हे
अनयन होकर ,
तुम्हारी लय पर
थिरकती हूँ मै
देह में विदेह होकर
और पोर पोर पर
मुस्कराते हो तुम
नियम से बेनियम होकर ,
आदिम धुनों में
तुम्हारा अनहद नाद
बजता है मुझमे
और उठती है हिलोर
इस असंभव समय में .

18 comments:

  1. अनयन होकर ,

    तुम्हारी लय पर

    थिरकती हूँ मै

    देह में विदेह होकर ! कैसी होती है प्यास !
    बयाँ करती है ये कविता ! प्रेम के गहराइयों
    में उतरती हुई ..कविता असीम हो गई है !
    बिनु पद चलई, सुनेई बिनु काना !
    कर बिनु कर्म ,करेइ विधि नाना !
    यह कविता दिल में उतर गई!
    शुभ कामनाएं

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  2. नियम से बेनियम होकर ,
    आदिम धुनों में
    तुम्हारा अनहद नाद
    बजता है मुझमे
    अनहद नाद आदिम धुनो मे
    शायद यह नियम से बेनियम नही बल्कि इस नाद का यही नियम है
    क्या खूब भाव हैं

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  3. कैसे कुछ लोग शब्दातीत भी शब्दों से कहलवा लेते हैं...बधाई...

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  4. आदमियत की बात करें क्या
    दर्द हैं गम के मंजर है
    हर इन्सान तो लूट रहा है
    प्यार ये किसके अन्दर है

    यैसे समय के लिए सुन्दर कविता.
    रत्नेश त्रिपाठी

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  5. वाह !!वाह !! वाह !! अप्रतिम !!अद्वितीय !!

    शब्द नहीं ढूंढ पा रही जिनमे अपने उदगार बाँध अभिव्यक्त कर पाऊं....अभूतपूर्व भाव और सौन्दर्य ने मुग्ध कर लिया hai...

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  6. कई कई आंखों से

    देखती हूँ तुम्हे

    अनयन होकर ,


    ओह!!! क्या बात कही है....जबरदस्त अंकन!!! वाह!!!

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  7. अरे वाह! क्या लिखा है। आदिम धुन, अनहद नाद, नियम से बेनियम,अनंत विस्तार। शानदार। हमें ऐसा लगा कि हम कल ही टिपिया दिये थे।लेकिन लगता है अतंत विस्तार में टिप्पणी गुम हो गयी।

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  8. देह में विदेह हों जाना और फिर पोर पोर पर मुस्कराते हो तुम विदेह होकर !! ये सब प्रेम में ही संभव है! तुम्हारी ये बात और उषा कि ये पंक्तियाँ मेरी जान ही ले लेंगी .बिनु पद चलई, सुनेई बिनु काना !कर बिनु कर्म ,करेइ विधि नाना !
    ... कहाँ जाएँ अब !! ऐसी जगह जिस जगह का कोई नाम न हों ? बधायी अच्छी कविता के लिए .. लेकिन एक समस्या है ... साथ में जो चित्र है उसमें तुम तो पहचानी जा सकती हों ये दूसरा कौन है ?

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  9. mohabbat ke ahsaas ki ADBHUT kavita hai yah.....
    देह में विदेह
    BAHUT HI ACHHUTA AUR NAVEEN BIMB HAI....CONGRATES FOR THIS POEM..........

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  10. Aapki rachnayen alag hi duniya me le jati hain.Bahut bahut badhai.

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  11. waah --kya kahne!

    stri hridy ke itne komal sundar ahsaason ko aap ne shbd de diye hain--kya kahun!
    ati sundar!

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  12. तुम्हारी लय पर
    थिरकती हूँ मै
    देह में विदेह होकर
    और पोर पोर पर
    मुस्कराते हो तुम
    नियम से बेनियम होकर ...

    PREM AUR ANUBHAV KI GAHRAAI MEIN DOOBI UNMUKT RACHNA ..... BANDHAN MUKT HO KAR JEENE KI LAALSA BHARI BEJOD RACHNA HAI ...

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  13. आदिम धुनों में

    तुम्हारा अनहद नाद

    बजता है मुझमे

    और उठती है हिलोर

    इस असंभव समय में .

    क्या बात है सुशीला जी. रचना दिल में गहरे तक पहुँची. रोम-रोम भीगता सा लगा.

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  14. Aha...kya khub andaj hai aapka likhne ka...achchha laga aapka bolg visit kar aur niymit visit karna chahunga..badhai..!

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  15. मर्मस्पर्शी रचना..! .. बधाई..!!

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  16. बहुत खूब ..deh se videh hokar aur niyam mein aniyam hokar.. kewal in do panktiyon ko dubara dekhiyega shesh kavita kasi hui aur sugadh hai

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  17. Wah! kavita padh kar aisa prateet hota hai jaise dil ka sookhe sahil par thanda sawan barsa ho.....vijay budki

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