तुम्हारा वह चुम्बन
जिसमे घुली होती है
ईश्वर की आँख
झंकृत करती रहती है
अनवरत
मेरे जीवन के तार
उसमे भीगा होता है
पूरा का पूरा समुद्र
पूनम के चाँद को समेटे
नहा लेती हूँ मै
अखंड आद्रता
चांदनी ओढ़ कर
वहां विहँसता है बचपन
और घुटनों के बल
सरकता है समय
अपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
सहेज लेती हूँ उसे
जैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख .
और घुटनों के बल
ReplyDeleteसरकता है समय
अपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
सहेज लेती हूँ उसे
जैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख . ......
वाह ! क्या बात है !समय की खुबसूरत परिभाषा !
और माँ का पल पल सहेजने का आदिम बिम्ब !
बेहद कलात्मक और उत्कृष्ट कविता !
हृदय से आभार लो ! बधाई लो !
सरकता है समय
ReplyDeleteअपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
सहेज लेती हूँ उसे
जैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख .
बेहद निर्मल जैसे माँ का हो प्यार अंत:कर्ण मे बसा हुआ.....वैसी लगी आपकी रचना.......पावन !
जैसे सहेजती है मां
ReplyDeleteपृथ्वी की तरह
अपनी कोख ............
आपकी कविता पढ़ कर उस स्नेह की छाया में पहुच
गया जो जननी है ......ईश्वर को हम उसके बाद ही
जानते है ....इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई ...
जैसे सहेजती है मां
ReplyDeleteपृथ्वी की तरह
अपनी कोख
behad khubsurat kavita.dil tak chu gayi.
bahut he sunder rachna
ReplyDeleteसरकता है समय
ReplyDeleteअपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
सहेज लेती हूँ उसे
जैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख .
bahut sundar rachna lagi aapki yah
ए सुशीला जी...आप क्या लिखते हो यार। गजब के बिम्ब हैं..क्या प्रयोग किए हैं..ईश्वर की आंख...गजब यार। बधाई। मैं इस कविता पर फिर से बात करुंगी..फिलहाल शाम शानदार हो गई।
ReplyDeleteगीताश्री
क्या बात है बेहद खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteबहुत ही अलग तरह की कविता... पूरा का पूरा समुद्र,
ReplyDeleteजिसमे भीगा जाता है पाठक
पूनम के चाँद को समेटे
नहा लेता है वो
अखंड आद्रता
चांदनी ओढ़ कर...
और घुटनों के बल
ReplyDeleteसरकता है समय
अपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
बहुत सुंदर कविता
वाह क्या खूब लिखा है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर स्नेहमयी रचना.
ReplyDeleteनिश्चय ही अत्यन्त परिष्कृत एवं प्रभावी रचना । अंतिम पंक्तियों का तो प्रभाव अदभुत है । आभार ।
ReplyDeleteअद्भुत ....
ReplyDeletebahut pavitra soch
ReplyDeleteबहुत मधुर गाम्भीर्य लिए कविता !
ReplyDeleteEk baar phir chamatkrit sa kar diya aapne.
ReplyDeleteवाह वाह! जय हो! सुन्दर।
ReplyDeleteबेखुदी में ले लिया बोसा खता कीजिये मुआफ
ReplyDeleteयह दिल -ए- बर्बाद की सारी खता थी मैं ना था!!
सरकता है समय
अपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
प्रेम को चाहे जितना विस्तार दे दो या उसकी सीमायें निर्धारित कर दो उसकी निष्पाप निर्मलता अनवरत बहती ही जाती है.
बहुत मधुर कोमल भाव हैं . बधाई
आपकी इस कविता में प्यार की गर्माहट महसूस हो रही है, बहुत मन से लिखा है आपने।
ReplyDeleteकरवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
चुम्बन मे ईश्वर की आँख ,बहुत अनोखा बिम्ब है ।
ReplyDeleteAnokhi aur sundar kavita...
ReplyDeleteअपनी ढेर सारी निर्मल शताब्दियों के साथ
ReplyDeleteसाहेज लेती हूँ उसे ...जैसे सहेजती है माँ पृथ्वी की तरह
आध्यात्मिकता और जिंदगी के पावन फलसफे को
समेटे और सहेजे हुए एक स्तरीय रचना
कथया और शैली का अनूठा संगम
बधाई
---मुफलिस---
sahaj roop se likhi gayi ek bahut hi sunder kavita.........
ReplyDeleteलाजवाब रचना !!!
ReplyDeleteरेशमी शब्द ! कोमल भाव !
ReplyDeleteएक शब्द युग्म अखरता है "अखंड - आद्रता "
तुम्हारा वह चुम्बन
ReplyDeleteजिसमे घुली होती है
ईश्वर की आँख
झंकृत करती रहती
-वाह, बहुत गहरे उतर गई यह रचना तो पहली ही सांस में!!!
नारी-हृदय की
ReplyDeleteगांगेय तरलता में डूबी
यह कविता
अपने आप में
किसी चुम्बन से
कम नहीं..!
achhi kavita hai.
ReplyDeletekrishnabihari
abudhabi
मन के भावों को आपने बहुत संभाल संभाल कर व्यक्त किया है।
ReplyDelete----------
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सरकता है समय
ReplyDeleteअपनी ढेर सारी
निर्मल शताब्दियों के साथ
सहेज लेती हूँ उसे
जैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख .
बहुत सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति----
पूनम
bahut bahut khoob...waah ...
ReplyDeleteसुंदर व्यंजनाएं।
ReplyDeleteदीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
आप ब्लॉग जगत में महादेवी सा यश पाएं।
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आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।
WiSh U VeRY HaPpY DiPaWaLi.......
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार और दीप-पर्व की मंगल कामना .
ReplyDeleteDeepawali ki dheron shubkamnayen
ReplyDeleteEk adhyatmik or ruhani chumban jisme rooh or jism dono sareek rahe ek duje se badhker...........bemishal.....bhadhayee
ReplyDeleteसहेज लेती हूँ उसे
ReplyDeleteजैसे सहेजती है मां
पृथ्वी की तरह
अपनी कोख .
aapki kavita ka end ....bahut hii khoobsoorat hai....
ek gahre ehsaas ke saath sampoornn kavita....
अरे क माल, क माल
ReplyDeleteबहु ध माल, ध माल
प्रतिभाओं की चिता जलाने की तरकीबें बना रहा है !!
ReplyDelete(डॉ.लाल रत्नाकर)
मुर्दे लिखते हों जहाँ जिन्दों की तकदीर
ऐसी हालत हो गई आज जरा गंभीर
कुछ हो पर इस देश में
भ्रष्ट ही बड़ा रहेगा
ऐसा करता औ कहता है मुर्दों का सरदार
मुर्दों का सरदार बनाता है अपना कानून
संबिधान, कानून को समझाता है
ये सब उसकी चेरी हैं.
भूखों नंगों से लेता है
जम करके वह घूस
और वही रक्षक है उसका
कलजुग की ये रित
नियति वियति सब खोटी करके
केवल गोटी डाल रहे है
मुर्दे पर मडराते कौवे, चिल और कुत्ते
सबके सब ये ताक रहे हैं
मेरा हिस्सा तेरा हिस्सा क्या
सचमुच ये नियति से बाट रहे हैं.
नियम उवम से इनका कोई
लेना औ देना नहीं
ये तो केवल और केवल
अपना अपना नाप रहे हैं
लूट पाट का हिस्सा मुर्दे के पीछे
आगे अपनों के बाँट रहे हैं
'संत' बने फिरते थे जो
वो भी जूठन चाट रहे हैं.
मुर्दे के आगे आगे अंधे की लाठी
बनकर वह सारी धरती नाप रहे हैं
'संत' बने फिरते थे जो
वो भी जूठन चाट रहे हैं.
यहाँ जाती है, क्षेत्र यहाँ है
गोत्र और सगोत्र यहाँ है
संस्कार का झंडा लेकर
अंडा उनसब पर फेंक रहा है
जो उसके मुर्दा होने पर
जीवन उसमें डाल सकेंगे
पर गुंडों के हथकंडे आकर
मुर्दा भी रंग बघार रहा है
दुष्प्रचार के भांट बुलाकर
खिल्ली उनकी उड़ा रहा है.
प्रतिभाओं की चिता जलाने
की तरकीबें बना रहा है
दोहरे और दोगले मिलकर
कंधे पर लादे लादे
सहानभूति के वोट बटोर कर
सीना अपना तन रहे हैं
जनता है बे चैन मगर
मन ही मन सब कोस रहे हैं
गलती कर दी, अब न करेंगे
सहानभूति के वोट
या डरकर लूटने की खातिर
ये दे देंगे फिर ये अपना वोट
तब गुंडों के हथकंडे आकर
मुर्दा भी रंग बघार रहा है
दुष्प्रचार के भांट बुलाकर
खिल्ली उनकी उड़ा रहा है.
प्रतिभाओं की चिता जलाने
की तरकीबें बना रहा है !!