उसने कहा
तुम बिल्कुल बुद्धू हो
और मैं बुद्धूपने में खो गई
उसे देख हंसती रही
और हंसी समूची बुद्धू हो गई,
उसे छूकर लगा
जैसे आकाश को छू लिया हो
और पूरा आकाश ही बुद्धू हो गया चुपचाप,
उसकी आँखों में
उम्मीद की तरलता
और विश्वास की रंगत थी
जो पहले से ही बुद्धू थी
मेरी हथेलियाँ उसकी हथेलियों में थीं
जैसे हमने पूरे ब्रह्मांड को मुट्ठी में लिया हो,
साथ चलते हुये हम सोच रहे थे
दुनिया के साथ-
अपने बुद्धूपने के बारे में
हम खोज रहे थे
पृथ्वी पर एक ऐसी जगह
जो बिल्कुल बुद्धू हो..!
जब हम खुद से बुद्धू होते हैं तो बहुत कुछ हसीन लगता है।
ReplyDeleteवाह जबरदस्त आहुतियाँ इस अन्तरंग पलों की वेदी पर ....और अंत में ""बिल्कुल बुद्धू""" की पूर्ण आहुति ...जबरदस्त अनुभूति शब्दों के साथ !!! Nirmal Paneri
ReplyDeleteबुद़धू होने का सुख.....विश्वास कर रंगत से आता है। वाह!!
ReplyDeleteपृथ्वी पर एक ऐसी जगह
ReplyDeleteजो बिल्कुल बुद्धू हो..! वाह! बहुत ही खुबसूरत भाव.....
सचमुच प्यार बुद्धू ही होता है | वह कभी सयाना नहीं होता | प्यार में बुद्धू हो जाना प्यार की पूर्णता है. सुशीला जी आपने बहुत प्यारी कविता लिखी है जिसमें भाषा की ताजगी है और भावनाओं की खुशबू |
ReplyDelete- शून्य आकांक्षी
बुद्धू होना कितना सुखकर है...
ReplyDeleteबड़ी प्यारी सी रचना!
ताजगी और मासूमियत भरी सुंदर भावाभिव्यक्ति।
ReplyDeleteसच में कितना मज़ा है इस बुद्धूपने में....
ReplyDeleteकिस्मतवालों को ही नसीब होता है ये भी...!!
बेहद प्रभावी रचना.. सम्प्रेश्नीय और सुन्दर शिल्प
ReplyDeleteहम खोज रहे थे
ReplyDeleteपृथ्वी पर एक ऐसी जगह
जो बिल्कुल बुद्धू हो..! waah
उसने कहा
ReplyDeleteतुम बिल्कुल बुद्धू हो
और मैं बुद्धूपने में खो गई
khubsurat
वाह ...बहुत खूब
ReplyDeleteकल 23/11/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है, चलेंगे नहीं तो पहुचेंगे कैसे ....?
धन्यवाद!
Loved it. :-)
ReplyDeleteउत्कृष्ट भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteसंजय भास्कर
आदत...मुस्कुराने की
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
masuumiyat bhara bhola andaaz....
ReplyDeletearchana nayudu
बुद्धूपने में अपना ही एक अलग आनन्द है ..:):)
ReplyDeletebahut khoob...
ReplyDeleteमेरी हथेलियाँ उसकी हथेलियों में थीं
ReplyDeleteजैसे हमने पूरे ब्रह्मांड को मुट्ठी में लिया हो,....आनंद ..परम आनंद है इस बुद्धूपन में भी ...
हम खोज रहे थे
ReplyDeleteपृथ्वी पर एक ऐसी जगह
जो बिल्कुल बुद्धू हो..!
wah....aapka budhoopana lazabab hai.
वाह अनोखी रचना....
ReplyDeleteसादर बधाई...
BUDDHU KI SHARAN
ReplyDeleteBUDDH KI SHARAN !
GACHHAMI !
वाह , सुन्दर, अति सुन्दर.
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग snshukla.blogspot.com पर भी पधारने का कष्ट करें.
उसने कहा
ReplyDeleteतुम बिल्कुल बुद्धू हो
और मैं बुद्धूपने में खो गई ....
बहुत ही अच्छी कविता.... सुशीला जी....बधाई......
आदरणीय
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावुक और दिल को छु जाने वाली कविता है.
बुद्धूपन का यह एहसास बड़ी मुश्किल से मयस्सर होता है
" मेरी हथेलियाँ उसकी हथेलियों में थीं
जैसे हमने पूरे ब्रह्मांड को मुट्ठी में लिया हो,"
बहुत सुन्दर
बहुत अच्छा.......
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर! बधाई
ReplyDeleteयह बुद्धूपना कितनी जल्दी छिन जाता है! बुद्ध होन की व्यर्थ की अभिलाषा में हम अपने बुद्धूपने को भी खो देते हैं। बहुत सुंदर लगी यह कविता।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर!
ReplyDeletejo bilkul buddhoo ho ...vah shayd maim ho saktaa hoon jo binaa samamjhe pooree kavita padh gaya
ReplyDeleteDr jaijairam anand
Los Angeles Usa
आभार आप सभी का !
ReplyDeleteबुद्धूपने की नई खोज मुबारक हो ! प्रेम और सौन्दर्य दोनों ही भोला होता है ! बधाई !
ReplyDeleteI love ur writing always........it always inspire me Sushila ji
ReplyDeleteअमूर्त को मूर्त रूप देने की कला बहुत कम लोगों में होती है.. किसी abstract चीज़ पर कविता लिखना सरल नहीं है. आपका बुद्धूपन बहुत पसंद आया. :)
ReplyDelete--सुनहरी यादें--
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