मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनी भूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
Saturday, May 29, 2010
Thursday, May 6, 2010
तुम्हारी आवाज .......
नदी की लहरों पर
खुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज ,
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें ,
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है ,
बर्फीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।
खुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज ,
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें ,
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है ,
बर्फीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।
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