थर -थर काँपती
लिपियों के बीच
मिले थे हम,
तुमने मुझे
मेरे नाम से पुकारा था
बिल्कुल धीमे
लगभग फुसफुसाकर
और उन्ही दुबली लिपियों से
रचा था हमने महाकाव्य ,
भाषा के मौन घर में
छुप गए थे हम
डरे हुये परिंदों की तरह
चहचहाना भूलकर
बस देखना ही शेष था,
अगल बगल बैठे थे
पर दूर कहीं खोये थे
एक दूसरे के सपनों में ,
सपनों के भीतर
आत्मा की आँच थी
ताप रहे थे जिसे
दोनों हथेलियाँ फैलाए
समय की बीहड़ उड़ानों में ,
मेरी त्वचा पर
खुदा था तुम्हारा नाम
जिसे पहचान गए थे तुम
उस एक ही अक्षर में...
जन्मों के गीत रचे थे
एकांत के रंगों में
जिसे हम गा रहे थे
चुप्पियों के बीच,
सरगम की यात्रा
धुनों की बारिश में
भीग गए थे हम
बाँसुरी के स्वरों में,
ठीक उसी वक्त
क्रोंच-बध हुआ था
लहूलुहान हुई थी धरती
और टूटती साँसों के बीच
जन्मे थे बुद्ध ...।
बाँसुरी के स्वरों में,
ReplyDeleteठीक उसी वक्त
क्रोंच-बध हुआ था
लहूलुहान हुई थी धरती
और टूटती साँसों के बीच
जन्मे थे बुद्ध ...।
बेहतरीन कविता।
सादर
adbhut bhaw sanyojan
ReplyDeleteDidi Ji Sadar Pranam,
ReplyDeletedil ko chu gayi aapki behtreen rachna.......
आज 19- 07- 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
ReplyDelete...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________
sunder prastutikaran.
ReplyDeleteshubhkamnayen
भावमय करते शब्दों के साथ सुन्दर प्रस्तुति ... ।
ReplyDeleteदिनांक गलत होने के कारण फिर से सूचित कर रही हूँ ..
ReplyDeleteआज 22- 07- 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
____________________________________
अत्यंत भावपूर्ण रचना .
ReplyDeletebhut hi sundar....adbhut:)
ReplyDeleteखूबसूरत भावों को समेटे एक खूबसूरत रचना |
ReplyDeleteadbhut rachana....
ReplyDeleteआपकी कविता अनहद नाद की तरह है।
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत अभिवयक्ति....
ReplyDeleteभाषा के मौन घर में ......बेहद खूबसूरत
ReplyDeleteकमाल का शिल्प है इस रचना का!
ReplyDeleteअद्भुत रचना......
ReplyDeletebahut hi khoosoorat rachna.........
ReplyDeleteएकांत के रंगों में
ReplyDeleteजिसे हम गा रहे थे
चुप्पियों के बीच,
सरगम की यात्रा
धुनों की बारिश में
भीग गए थे हम
भावों की गहनता लिए बहुत अच्छी रचना ...
उस एक ही अक्षर में...
ReplyDeleteजन्मों के गीत रचे थे
बहुत सुन्दर रचना, खूबसूरत अभिव्यक्ति , बधाई
namaskaar !
ReplyDeletesunder abhivyakti , sunder prastuti . badhai
sadhuwad
saadar
लिपियों के बीच
ReplyDeleteमिले थे हम,
तुमने मुझे
मेरे नाम से पुकारा था
बिल्कुल धीमे
लगभग फुसफुसाकर
खूबसूरत अभिव्यक्ति
"भाषा के मौन घर में
ReplyDeleteछुप गए थे हम
डरे हुये परिंदों की तरह
चहचहाना भूलकर
बस देखना ही शेष था," एक और खूबसूरत कविता। कितनी महीन और मार्मिक बुनावट है अंतरंग मानवीय भावों की। बधाई सुशीलाजी।
सुंदर भाव
ReplyDeleteव्याकरण की शब्दावली में सघन प्रेम की यह शानदार कविता आपकी लेखनी ही से निकल सकती थी। बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteपर वो भी तो प्रेम की मौन भाषा से ही उपजे थे ... प्रेम जिसकी कोई भाषा नहीं होती ... जो सृजन करती है प्रेम का ...
ReplyDeleteअध्बुध प्रस्तुति है ...
aisi rachna ke liye badhai aur shubhkamnayen.
ReplyDeleteaakarshan
सुन्दर कविता...बहुत पसंद आई..
ReplyDelete.
ReplyDeleteजन्में थे बुद्ध ...............
कुछ समय को थम गया था क्रौंच -वध ,
किन्तु गैरिक रंग के नेपथ्य में
वह वधिक जीता रहा था ,
हिमाच्छादन के तले
दरारों के बीच बहती ही रही
श्याम-अंतर-धार ....................!
sundar abhivyakti
ReplyDeleteठीक उसी वक्त
ReplyDeleteक्रोंच-बध हुआ था
लहूलुहान हुई थी धरती
और टूटती साँसों के बीच
जन्मे थे बुद्ध ...
बेहद खूबसूरत...
मेरी त्वचा पर
ReplyDeleteखुदा था तुम्हारा नाम
जिसे पहचान गए थे तुम
यह तो मन को वैसे ही छू गया जैसे जंगली हवा उतर जाती है मन की भीतरी तहों में
कहीं . बधाई
क्या कहूँ?मन आनंदित हुआ। रूहानी अल्फाजों से भरी
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति।
बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
उस एक ही अक्षर में...
ReplyDeleteजन्मों के गीत रचे थे ..
वाह! बेहद कोमल से भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति..
बहुत बढ़िया कविता... बधाई...
ReplyDeleteसचमुच आपने बहुत अच्छी कविता लिखी है दीदी कविता लिखने मे आपका कोई सानी नही है
ReplyDeleteथर -थर काँपती
ReplyDeleteलिपियों के बीच
मिले थे हम,
तुमने मुझे
मेरे नाम से पुकारा था
बिल्कुल धीमे
लगभग फुसफुसाकर
और उन्ही दुबली लिपियों से
रचा था हमने महाकाव्य ,
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बेहतरीन अनुभूति
bhasha ke moun ghar me
ReplyDeletemnn krne ko prerit krti ek hi pnkti bhut hai
puri kvita ke khne hi kya .
भीग गए थे हम बाँसुरी के स्वरों में !
ReplyDeleteआप सभी का दिल से आभार !
ReplyDeletejab tak bachogi
ReplyDeleteaise hi rachogi
Jis din 'mar' jaaogi
apne ghar laut aaogi...
naha-dhokar...
aur us se pahle jaane kahaan-kahaan
kya-kya toh bo-bo kar...
आज आपके ब्लॉग पर आपकी रचनाओं का आस्वादन किया. बहुत गहरे मन को छूती हुई रचनाएँ. प्रेम का यह धीमापन ही भिगोता है. सुन्दर रचनाओं के लिए बधाई.
ReplyDeleteभावनाओ के ज्वार को बहुत खूबसूरती से शब्दों के दायरे में बांध कर कर अच्छी कविता लिखी है.
ReplyDeleteयदि मीडिया और ब्लॉग जगत में अन्ना हजारे के समाचारों की एकरसता से ऊब गए हों तो कृपया मन को झकझोरने वाले मौलिक, विचारोत्तेजक आलेख हेतु पढ़ें
अन्ना हजारे के बहाने ...... आत्म मंथन http://sachin-why-bharat-ratna.blogspot.com/2011/08/blog-post_24.html
keep it regular
ReplyDeletevikas
apki rachan akabile tarif hai
ReplyDeleteaapki kavitao ne dil ko chhu liya. aap badhai ki patr hai.
ReplyDeletem shiva
www.kaalamita.com
bahut hi sundar kavita hai sushila ji.........
ReplyDeleteदीदी बहुत बढ़िया लगी आपकी कविता .बस इसी तरह साहित्य जगत को अपनी रौशनी से चमत्कृत करते रहें .. धन्यवाद
ReplyDeleteप्रेम अब बीता हुआ भाव बन चुका है/ आप की यह कविता बताती है यह सच नही है/मिथक का अच्छा प्रयोग है/ ऐसी कविताये ह्मे यकीन देती है
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