मेरे मौन की अज्ञात लिपि में
पिरो दिये हैं तुमने
कुछ भीगे अक्षर
बोलो ! मैं इनका क्या करूँ
जबकि ;मैं घर पर नहीं थी
और डाकिया डाल गया
एक बन्द लिफाफा
जिसके भीतर
एक नदी है
असंख्य आवेगों से भरी
उसकी बूँदों के वर्ण
लिख रहे हैं
कथा समंदर की
उसकी लहरें
समेटें हैं अपने आँचल में
झिलमिल चाँदनी
और चाँद की महक ,
अब तो इतना समय भी नहीं
कि वापस भेज दूँ नदी को
जहाँ से वो आई है
या कह दूँ कि
चलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
bhut bhut hi khubsurati se apne bhaavo ko shabdo me piroya hao... very nice...
ReplyDeleteया कह दूँ कि
ReplyDeleteचलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
Aapne mujhe nishabd kar diya !
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
phir nadi nadi nahi rah jayegi
ye nadi kuch kuchh us ourat ki trha to nhi jiske bheetar sunami umad rhi ho our uska mukh spndnheen ho nitant nirvikar .
ReplyDeleteaisi hi ndi bhte huye tinka nhi bhigoti hai .
behad hee gahare bhavon kee nadee baha di aapne. wakai jahaan nadee bahegee vahaan dharti geele to hogee hee..
ReplyDeletebehad hee sundar rachana. badhai sammaniya Sushila ji ! naman !
Bhut hi sundar rachna..aapki rachnaye ek anokhe aanand se rubru karati hai,bhut khubsurat likhti hai aap..
ReplyDeleteBhut hi sundar rachna..aapki rachnaye ek anokhe aanand se rubru karati hai,bhut khubsurat likhti hai aap..
ReplyDeleteआदरणीया सुशीला पुरी जी
ReplyDeleteप्रणाम !
सादर सस्नेहाभिवादन !
बन्द लिफाफा पढ़ कर अभिभूत हो गया …
भावनाओं का सैलाब-सा उमड़ा हुआ प्रतीत होता है ।
आपका बिंब-विधान इतना अछूता-सा होता है कि कई रचनाएं तो पढ़ते हुए अवाक रह जाता हूं …
अभी मैं नेट पर इतना सक्रिय नहीं … पुनः आपकी छूटी हुई पोस्ट्स पढ़ने आऊंगा …
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
-क्या कहें...अद्भुत अभिव्यक्ति...नमन!!!
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
वाह...
अति सुन्दर , दिल को छूने वाली रचना
ReplyDeleteऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
नहीं ऐसा नहीं हो सकता ,
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दूर से ही बहती नदी की
आर्द्रता खींच लेते हैं ,
आप भी ऐसी ही एक जल-मित्र हैं !
बहुत सुन्दर कविता ,सुशीला जी-
हार्दिक बधाई !
या कह दूँ कि
ReplyDeleteचलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
sundar...
या कह दूँ कि
ReplyDeleteचलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
भावों का सुन्दर सम्प्रेषण
धरती की तो प्रवृति ही है ...भीग जाती है हर दुख से .... दिल के जज़्बातों को शब्द दे दिए हैं ...
ReplyDeletenadi ko bahne dijiye aur sab kuch bhigh jane dijiye didi
ReplyDeleteजबकि,मै घर पे नहीं थी
ReplyDeleteऔर डाकिया डाल गया
एक बंद लिफाफा
जिसके भीतर इक नदी थी ....बहुत खूब गहरी बात है |
सच ..... यह कहां मुमकिन कि नदी के बहने का सिलसिला, और गीली न हो धरती ..... बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति की खातिर बधाई.
ReplyDeleteचमत्कृत करती है नदी और बन्द लिफाफा........सुन्दर कविता..
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 17 - 05 - 2011
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
नहीं ऐसा तो नहीं हो सकता ....धरती का गीला होना अवश्यमभावी है !
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है, "ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे/ और धरती गीली न हो!" यह अजस्रा यूँ ही बहती रहे और हमारे मन उसमें धुलते रहें।
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
प्रवाहमय रचना उसी नदी सी ....
अंतर्मन में नमी आ गई
aapki kavitaye man ko chuti hai. bhut sundar
ReplyDeleteaapki kavitaye man ko chuti hai bhut sundar...nivedita
ReplyDeleteeshaq bahut hi khoobsurat rachna, sundar ropak ka istemaal karte ue aap apni bat keh payi
ReplyDeletebadhai
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
ऐसा कैसे हो सकता है…………अपना स्वभाव वो कैसे छोड सकती है।
कि नदी बहती रहे
ReplyDeleteऔर धरती गीली न हो...
यह प्रतीक खूब भाया...
khoobasoorat bhaaw , sundar aur prabhaawshaali rachanaa
ReplyDeleteSundar!
ReplyDeleteनदी जब-जब राह बदलती है प्रलय ही आती है ....नदी को नदी ही रहने दें बस ......
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
ReplyDeleteऔर धरती गीली न हो...मन के भा्वों की सुन्दर अभिव्यक्ति है
हाँ, यह संभव नहीं .....कुछ रिश्ते बहुत गहरे हैं ! शुभकामनायें आपको !!
ReplyDelete..बहुत खूब गहरी बात है |
ReplyDeleteमेरे मौन की अज्ञात लिपि में
ReplyDeleteपिरो दिये हैं तुमने कुछ भीगे अक्षर
बोलो ! मैं इनका क्या करूँ
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अब तो इतना समय भी नहीं
कि वापस भेज दूँ नदी को
जहाँ से वो आई है
या कह दूँ कि
चलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
मौन में लिखे अक्षर भीगे ही होते हैं..!!
ज़रुरत है उनका गीलापन महसूस करने की
जिसे शायद बिरले ही समझ सकते हैं..!!
वर्ना बोल-बोल कर शब्द अपना महत्त्व खो देते हैं..!!
समय और नदी की रफ़्तार को
कोई कहाँ रोक सका है
और न ही पलट सका है !
भावनाओं की नदी बही
तो फिर बहती ही जाती है.
वापस हो जाए तो नदी कहाँ?
कुछ को भिगो देती है
और कुछ को बहा ले जाती है...!!
आपके शब्द खुद अपनी बात सहजता से कह देते हैं !
ReplyDeleteहमेशा की तरह खूबसूरत और भावपूर्ण प्रस्तुति..!!
अद्भुत...
ReplyDeleteऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
gahan bhavon ki sundar abhivyakti.
ReplyDeletekya baat hai!
ReplyDeleteदिल को छूने वाली रचना...अति सुन्दर !!
ReplyDeleteआपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके पोस्ट की है हलचल...जानिये आपका कौन सा पुराना या नया पोस्ट है यहाँ...........
ReplyDelete"नयी पुरानी हलचल"
अति सुन्दर
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बहुत अच्छी भावपूर्ण कविता है।
ReplyDeleteबहुत ही जीवंत कविता!
ReplyDeleteऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
bahut sunder , bhavo se bhari sunder rachna ke liye badhai
ऐसा हो सकता है भला ?
ReplyDeleteकि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !
bahut sundar! Bheeg gaya man!