मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनी भूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
अद्भुत.......विशेष तौर पे
ReplyDeleteजैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
ये पंक्तिया......
kya baat hai..
ReplyDeletebahut hi umdaah rachnaon me se ek....
mere blog par...
ReplyDeleteतुम आओ तो चिराग रौशन हों.......
regards
http://i555.blogspot.com/
बेहतर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteजो निजता को समूचे जहां के सापेक्ष रख कर बरतना सिखा रही है...
waah adbhut aur manmohak kavita....aur chitr to bada hi khoobsoorat chuna...chura kar apne sankalan me daal liya...
ReplyDeleteवाह - खूबसूरत भाव और शब्द संयोजन।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
बहुत खूबसूरती से समूचे आकाश की कल्पना की है...खूबसूरत अभिव्यक्ति
ReplyDeleteवाह ! बेहतरीन ... बेहतरीन !!
ReplyDeleteजल , वायु , पृथ्वी , आकाश --बहुत सुन्दर अहसास ।
ReplyDeleteबढ़िया रचना ।
उमंगें बरतती है उद्दाम को
ReplyDeleteऔर अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
*बाँहों में समा जाये उमंगों का सारा आकाश,मन फैलाये अपने' पर ' उड़े इस खुले आकाश के बंधनों में !अहा!!
*बहुत ही सुंदरता से भावों को प्रस्तुत किया है आप ने.
बड़े करीने से सजाये हैं सभी शब्द ..सुशीला जी अति सुन्दर!
वाह! बहुत सुन्दर!
ReplyDeletewww.mathurnilesh.blogspot.com
hva jl dhrti our umng prkriti ke tmam aayamo ko aatmsat krti punh ek dmdar prstuti.ek swal hai shushila ye mansik khurak yha ki hai ya gav ki?
ReplyDeleteउमंगें बरतती है उद्दाम को
ReplyDeleteऔर अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
समूचे आकाश को बाहों में समेत लेने की उमंग ...
कमाल की पंक्तियाँ है ... अच्छे भाव लिए ...
JITNI SUNDAR KAVITA UTNA HI SUNDAR PHOTO BHI
ReplyDeleteSHANDAR
Great poetry with great pic .............
ReplyDeletegood read! nice one
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव!! वाह!! आनन्द आ गया पढ़ने में.
ReplyDeletesushila ji...aap bahut khubsurat likhte ho....
ReplyDeleteअनूठे अहसासों से लवरेज बेमिशाल प्रस्तुति
ReplyDeleteमैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
ReplyDeleteजैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
सुन्दर भाव, सुन्दर और सरल भाषा, सुन्दर एहसास
और क्या चाहिये एक अति सुन्दर रचना के लिये
वाह कमाल की अभिवय्क्ति!
ReplyDeleteखूबसूरत भाव और शब्द संयोजन।
ReplyDeleteबेहरीन, इसके सिवा कोई विशेषण अधूरा लगेगा। (घनी भूत=घनीभूत)
ReplyDeleteगहरे भाव लिए सुन्दर रचना
ReplyDeletebahut khoob!
ReplyDeletekavita me bas ek hi pankti hai jo kavita ko bana rahi hai ....मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे....
ReplyDeletenaye tarah ka bimb rachna hai...हवा बरतती है सुगंध को... sunder kavita !
हवा में सुगंध का घुल जाना,जल का प्यास मिटाना,ये सभी नये बिम्ब नहीं पर आपने इस तरह कविता में पिरोया है की लगता है आपके शब्दों ने बार बार प्रयोग हुए बिम्बों को नया रूप दे दिया है.धरती का हरियाली में मुँह छुपा लेना.अद्भुत...
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण आैर उम्मीद भरी रचना।
ReplyDeleteऔर अपनी बाहों में
ReplyDeleteभर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
PREM BHAV KI AASIM ABHIVYAKTI
अद्भुत...सुन्दर रचना
ReplyDeletesunder rachna vivj2000.blogspot.com
ReplyDeleteसुशीला जी, सचमुच लाजवाब कर दिया आपने।
ReplyDelete--------
ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
अद्भुत अभिव्यक्ति........ अनछुए बिम्ब....
ReplyDeleteमैं बरतती हूँ तुम्हें ऐसे ..... प्रिय को बहुत संभाल कर सहेज कर जीने की चाह है .. जैसे कोई पान के पत्ते फेरता है ....प्रिय से ऐसा नेह ! हम विस्मित हैं तुम्हारी कविता के इतने सहज, मधुर, सौम्य ,और सुंदर भावों से रचे अपनेपन को देखकर ! सखि ,तुम्हें दिल से बधाई !!
ReplyDeleteकोमल भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति----बहुत बढ़िया रचना। पूनम
ReplyDeleteसशक्त सार्थक और सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबधाई
...सुन्दर रचना ..मुझे आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा.
ReplyDeletesushila ji,aap ki kavita bahut sundar hai .gahan bhavanayon ke liye badhai.
ReplyDeleteprakriti ke pratidan ki anuthi abhivyanjna.shubkamnayen.
ReplyDeleteधरती बरतती है हरी घास को
ReplyDeleteऔर उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
कुछ अलग सा एहसास .....!!
बहुत कोमल भावनाओं का सशक्त प्रस्तुतीकरण।
ReplyDeleteखूबसूरत अभिव्यक्ति.........
ReplyDeleteहवा बरतती है सुगंध को
ReplyDeleteऔर दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
बहुत कोमल कविता है शतदल कमल की तरह ! इस नश्वर से अनश्वर भाव चुने है !यह उतर आई है कलम की नोंक पर और पहुंचती है दिलों के शिखर पर ! बधाई स्वीकारें !
Bahut hi sundar aur khubsurat shabd bhare hain, aapne........prashanshniya....:)
ReplyDeleteek nimantran: hamare blog pe aayen!!
जैसे
ReplyDeleteधरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
Adbhut roopak
बहुत सुन्दर कविता है सुशीला जी. लेकिन इतना लम्बा विराम क्यों? अगली पोस्ट कब डालेंगी?
ReplyDeleteमन इतना उदास था पर आपकी कविता ने मन को नमी और नरमी दोनों बक्शी. गज़ब का लिखती हैं आप सुशीला जी.
ReplyDeleteआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद ।
ReplyDeletegahre bhao.........sunder abhivakti.....................
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