एक धुन है
जो लिपिहीन होकर
गूँजती रहती है निरंतर
अपनी व्याप्ति मे विलक्षण
उसकी लय पर
थिरकती हूँ मै अहर्निश ,
एक धुन है
जो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर ,
एक धुन है
जो नामहीन होकर
सुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
रचती रहती है मधुर स्वर ,
एक धुन है
जो डोरहीन होकर
बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।
'एक धुन है
ReplyDeleteजो नामहीन होकर
सुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
रचती रहती है मधुर स्वर ,''
----
-बेहद खूबसूरत रचना ..बेहद खूबसूरत भाव!
'बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा'
---अद्भुत!!प्रशंसा के लिए शब्द तलाश रही हूँ...
एक धुन है
ReplyDeleteजो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर ,
jabardast hai ye dhun...behad khubsurat.
एक धुन है
ReplyDeleteजो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर
बहुत खूबसूरत रचना....मन थिरक ही तो गया पढ़ कर
क्या बात है पुरी साहब!
ReplyDeleteइतनी उदासी क्यों है इस कविता में?
लेकिन कविता बड़ी अच्छी है।
ज़रा कविता कोश को भी कविताएँ भिजवाइए।
पता है
kavitakosh@gmail.com
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
ReplyDeleteफूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी । !!!
अव्यक्त को व्यक्त करती ,सूने में संगीत भरती ,यह कविता वास्तव में खुबसूरत बन पड़ी है ! अनिल जी की बात कविता की कीर्ति पताका है ! बधाई !
"funkti rahi apne hisse ki bansuree.......:)"
ReplyDeletebahut khubsurat abhivyakti......mere pass sabd nahi hai kahne ko.......:)
sushila di
ReplyDelete'बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा'
itanisashkt avambehad hi prabhavshali rachana.
nihshabd ho gai hun main.
poonam
जीवन एक प्रवाह की तरह है और प्रवाह में रहना ही जीवन की सार्थकता है... और बाँसुरी की आवाज़ गूँजती रहे तो कहना ही क्या.......
ReplyDeleteधारा प्रवाह रचना ... अध्बुध शब्दों से रची रचना ... लिपि हीन छन्द हीन धुन .... लाजवाब ...
ReplyDeleteशानदार, कविता और चित्र दोनों।
ReplyDelete---------
इंसानों से बेहतर चिम्पांजी?
क्या आप इन्हें पहचानते हैं?
सुंदर कविता... सुंदर चित्र ...अनहद आनंद का सृजन कर रहे हैं.
ReplyDeleteghazab ki dhun ... :) par laga ki kavita aadhe me hi khatm ho gayi ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteइस अद्भुत रचना की प्रशंशा शब्दों में करना असंभव है...इतने सुन्दर भाव और शब्दों का समावेश किया है इसमें की क्या कहूँ...वाह...दिल गदगद हो गया पढ़ कर...
ReplyDeleteनीरज
हर बार की ही तरह एक और सुन्दर कविता !!!!!!!!
ReplyDeleteसुशीला जी , बहुत दिनों बाद आपको पढ़ा । अवाक सा रह गया , आपके शब्दों के प्रयोग पर । इतनी खूबसूरत तस्वीर के साथ ये रचना बड़ी मनमोहक लगी ।
ReplyDeleteपूरी कविता का निचोड़ कुछ पंक्तिया है.....विशेष कर ये वाली ...
ReplyDeleteगगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।
हाँ चित्र जैसे कविता का एक हिस्सा है
In sab diggajon ke comments ke baad mai kahun to kya kahun? Koyi alag alfaaz nahi bache!
ReplyDeleteआरोहों अवरोहों से परे
ReplyDeleteअपनी त्वरा मे तत्पर ............बेहद सुंदर रचना ....बधाई...मन को हौले से छू गई ये कविता.....
उफ़ क्या कहूँ इस रचना के कला और भावपक्ष की...
ReplyDeleteमंत्रमुग्ध कर लिया बस.....
बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर....
सुशीला जी,
ReplyDeleteएक प्रशंसा है, जो गूंज रही है, निरंतर..., छंदहीन-शब्दहीन, अहर्निश...। आप टेरती रहे धुन, मैं नाच रही हूं निरंतर.
गीताश्री
गजब की धुन है भाई! वाह! वाह!
ReplyDeleteअपने हिस्से की बांसुरी खूब फूंकी है आपने...
ReplyDeleteबेहतर...
जो नामहीन होकर
ReplyDeleteसुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
Apne mijaaz ke hisab se ye panktiyaN zyada jamiN mujhe.
ye dhun gunzti rahegi jab tak tab tak ye zindgi hamari khushiyo ko aur hamare jindgi k prati lagaav ko posti rahegi...is dhun ka gunzta rahna jaruri he.
ReplyDeletebahot khoobsurat.
ReplyDeleteधारा प्रवाह रचना ...
ReplyDeletechitra aur kavita dono hi adbhut hai!
ReplyDeleteshabdo se jo sangeet paida kee hai is kavtia wah vilakshan hai!
ReplyDeleteकविता के साथ चित्र न हो तो रचनाकार और पाठक के अंतस् की ज्योति एकाकार हो जाए.... !! ...........अत्यन्त संकोच के साथ यह बात कही है सुशीलाजी..!
ReplyDeleteसुन्दर भाव शब्द और चित्र ।
ReplyDeleteAn excellent harmony of thoughts with expressive illustration of beauty.
ReplyDeleteसुशीला जी
ReplyDeleteआपकी कविता बेहद पसंद आई. अपनी निजी अनुभूतियों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है. वैसे पंतजी ने भी लिखा है.
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
निकल कर नयनों से चुपचाप
वही कविता होगी anjaan
www-vichar-bigual.blogspot.com
adrishy ko mehsous krna our use shbdo ka jama phnanna. bhut khoob !bhut khoob !
ReplyDeleteआपकी कविता(एँ) बहुत अच्छी लगीं। क्यों नहीं आया आज तक, इसकी सफ़ाई देने की ज़रूरत आपको नहीं-अपने आप से है। मुझे पता है, मगर अपनी बेवक़ूफ़ी की क्या चर्चा करूँ।
ReplyDeleteआपकी "एक ही ईश्वर और एक ही नागरिक" वाली रचना बहुत बढ़िया है।
मार्मिकता और भावुकता के मोतियों की तो वैसे भी कमी नहीं है चहुँओर, मगर विचार का धागा ही उन्हें प्रस्तुति योग्य बना पाता है। यही साहित्य-सृजन है। आपको धागे के लिए बधाई।
uttam racana srijan ke liye badhai
ReplyDelete.एक धुन है
ReplyDeleteजो डोरहीन होकर
बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी । ...पूर्ण समर्पण के बाद मिले विरह की अदभुत कथा कहती है तुम्हारी कविता .मिलन के बाद फिर मिलन की चाह वियोगिनी बना रही है तुम्हें .सुन्दर कविता के लिए दिल से बधाई
sunder rachna didi ji .........
ReplyDeleteसुन्दर कविता, उदास लेकिन ऊर्जा से भरी हुई. बधाई.
ReplyDeleteजब पिछली कविता पढ़ी थी, तब प्रतिक्रिया देना चाहता था लेकिन लगाता सफ़र में था। बहुत कम ऐसे रचनाकार हैं जो अपने वैयक्तिक 'आत्म' (self) और अपने सृजनात्मक 'आत्म'(Creative self) के बीच के द्वैध और पृथकता को इस कर एक कर पाते हों। (याद करें इलियट को, जो 'रचयिता मानस' और 'भोक्ता-मानस' के बीच 'ज़रूरी अंतराल' की बात करता था)
ReplyDeleteलेकिन आपको लगेगा मैं कोई गंभीर-सी अकादेमिक बात करने लगा। ..तो कुल मिलाकर यह कि बधाई, इतनी सुंदर, सम्मोहक और संवेदनात्मक कविताओं के लिए। भाषा को इस तरह बरत पाने के लिए सिर्फ़ शिल्प कौशल ही नहीं, वह काव्य-हृदय भी चाहिए!
जो यहां निस्संदेह है ! अनंत शुभकामनाएं...!
आप सभी का हार्दिक आभार....
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