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Sunday, April 22, 2012

रोना


तुमने पूछा था
क्या बचपन से तुम
इसी तरह रोती रही हो !
और सोचने लगी मै
उस समय के बारे में
जब हम
बिना रोये हुआ करते थे

रोने की जगह
हंसना होता था तब;
बात- बेबात बस
हँसते जाते पागलों की तरह
और हमारी हंसी में
शामिल हो जाती थी
पूरी दुनिया,

हँसने की जगह तब
रोना नहीं बना था शायद
उन दिनों हमारी हंसी में
चाँद ,सूरज ,नदी, पहाड़
सभी शामिल थे ;

घरों के भीतर की जगह भी
तब हँसती रहती थी
आँगन से आकाश तक
हँसने में साथ होते थे हमारे,
हँसते समय तब मै
बड़ी निश्चिंत होती थी
सोचती-
यह कहीं नहीं जाएगी;

दुनिया के किसी भी कोने में तब
हंसा जा सकता था बेखौफ,
फिर चुपचाप जाने कब
बदलता चला गया सब
हँसने की जगह
रोना आता गया
शुरू में सिर्फ पलकें नम होती थीं
फिर ज़ोर ज़ोर से रोना हुआ
हाँलाकि पहले शर्म भी आती थी रोने में
तो छुप छुप कर रोती,

ज़ोर ज़ोर के रोने में
नामित थीं कई जगहें
कभी अयोध्या कभी मेरठ
कभी गोधरा तो कभी गुजरात,
अब तो हर वक्त डर बना रहता है
ऐसा लगता है कि स्टेशन -मास्टर
अभी भी छुपाये बैठा है
उस जलती रेलगाड़ी के टिकट
कभी भी
वह काटने लगेगा टिकट,

डर लगा रहता है कि कहीं
रोना भी न छिन जाये हमसे
और गिने चुने लोग
जो शामिल हैं रोने में
रोने को हंसना न समझ बैठें;
वैसे भी
रोने जैसा रोना भी कहाँ रहा अब !?!

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