Pages

Saturday, October 2, 2010

उपस्थिति

तुम नहीं थे 
तब भी थे तुम 
स्पर्श की धरा पर 
हरी घास से 
बीज के भीतर
वृक्ष थे तुम ,
बाँसुरी से 
अधर पर 
नहीं थे तुम 
तब भी थे 
अमिट राग से ,
मौन के आर्त पल मे 
स्वरों का हाथ थामे 
व्याप्त थे पल पल 
शब्द पश्यन्ती 
महाकाव्य से ....!  

34 comments:

  1. सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

    ReplyDelete
  2. सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर रचना .बधाई

    ReplyDelete
  4. स्पर्श की धरा पर
    हरी घास से
    बीज के भीतर
    वृक्ष थे तुम ,

    ReplyDelete
  5. इस कविता को केवल महसूस किया जा सकता है...

    ReplyDelete
  6. बीज के भीतर
    वृक्ष थे तुम

    ReplyDelete
  7. बहुत कोमल अहसास लिए रचना । बेहतरीन, सुशीला जी ।

    ReplyDelete
  8. बहुत कोमल सी सुन्दर अभिव्यक्ति

    ReplyDelete
  9. कविता मन को छू गई....बहुत अच्छा लिख रहीं हैं आप...

    ReplyDelete
  10. बाँसुरी से
    अधर पर
    नहीं थे तुम
    तब भी थे
    अमिट राग से ...

    छू गयी आपकी रचना ... प्रेम के भोले एहसास से रची ... मधुर संगीत सी रचना है ....

    ReplyDelete
  11. दिल को छू लेने वाली कविता.

    ReplyDelete
  12. bahut hi sundar kavita..
    yun hi likhte rahein...
    मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
    क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
    अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
    http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html

    ReplyDelete
  13. बीज के भीतर
    वृक्ष थे तुम !!!
    कुछ सम्बन्ध शाश्वत होते हैं ! महीन बुनावट के साथ कोमल कविता बधाई !!!

    ReplyDelete
  14. कम शब्दों में बहुत कुछ कह देना...आपकी रचना यही दर्शाती है
    मुझे रचना बहुत पसंद आई

    ReplyDelete
  15. prem drisht roop se na ho kar bhi kahin na kahin bhitar vyapt hota hai...bahut hi suksham ahsaas ko prkt karti kavita hai...congtates

    ReplyDelete
  16. यह जो देह-अदेह के बीच प्रेम का पुल है उस पर तफरीह करना आच्‍डा लगता है। वहां घास की जड़ों में दरख्‍त और दरख्‍तों की फुनगियों में घास के खयाल होते हैं, हमारी शक्ति के स्रोत। अच्‍छी कविता के लिए बधाई।

    ReplyDelete
  17. सधे शब्दों की सुंदर प्रस्तुति......

    ReplyDelete
  18. बीज के भीतर
    वृक्ष थे तुम


    -गज़ब! उम्दा प्रस्तुति!

    ReplyDelete
  19. काश! आपकी कवितआओं-सा प्यार कर पाऊँ ज़िन्दगी को.........

    ReplyDelete
  20. इस बेहतरीन रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें...इतने सुन्दर भाव और शब्दों का प्रयोग किया है आपने के बार बार वाह करने को जी कर रहा है...

    नीरज

    ReplyDelete
  21. 'मौन के आर्त पल मे
    स्वरों का हाथ थामे
    व्याप्त थे पल पल
    शब्द पश्यन्ती
    महाकाव्य से ....! '

    *****अद्भुत!अद्भुत!!अद्भुत!!!*******

    ReplyDelete
  22. नहीं होने पे भी होने का आभास ,
    कोई अनहद नाद सा अमित राग,
    जो कही नहीं वो यही कही...
    स्वरों का हाथ थामे मन कहीं दूर निकल गया ..

    ReplyDelete
  23. shabdon main us "tum" ki upasththi mehsus hoti hai....

    ReplyDelete
  24. दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!

    ReplyDelete
  25. बहुत ही सुन्दर

    ReplyDelete
  26. सुशीला जी,
    आपकी काव्य-भाषा और कविता में अनुस्यूत भावों-विचारों पर मुग्ध हूँ!
    मुझे मेरी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं-

    "तुम सवालों में हो, तुम जवाबों में हो।
    मेरी आँखों की इन दो किताबों में हो।"

    ReplyDelete
  27. अति सुन्दर रचना ......
    रचना के लिए बधाई....

    ReplyDelete
  28. आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया !!!

    ReplyDelete

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails