तुम नहीं थे तब भी थे तुम स्पर्श की धरा पर हरी घास से बीज के भीतर वृक्ष थे तुम , बाँसुरी से अधर पर नहीं थे तुम तब भी थे अमिट राग से , मौन के आर्त पल मे स्वरों का हाथ थामे व्याप्त थे पल पल शब्द पश्यन्ती महाकाव्य से ....!
bahut hi sundar kavita.. yun hi likhte rahein... मेरे ब्लॉग पर इस बार .... क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें... अपनी टिप्पणी ज़रूर दें... http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html
यह जो देह-अदेह के बीच प्रेम का पुल है उस पर तफरीह करना आच्डा लगता है। वहां घास की जड़ों में दरख्त और दरख्तों की फुनगियों में घास के खयाल होते हैं, हमारी शक्ति के स्रोत। अच्छी कविता के लिए बधाई।
सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteसुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .बधाई
ReplyDeleteस्पर्श की धरा पर
ReplyDeleteहरी घास से
बीज के भीतर
वृक्ष थे तुम ,
इस कविता को केवल महसूस किया जा सकता है...
ReplyDeleteबीज के भीतर
ReplyDeleteवृक्ष थे तुम
बहुत कोमल अहसास लिए रचना । बेहतरीन, सुशीला जी ।
ReplyDeletebahut sundar !!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत कोमल सी सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteकविता मन को छू गई....बहुत अच्छा लिख रहीं हैं आप...
ReplyDeleteबाँसुरी से
ReplyDeleteअधर पर
नहीं थे तुम
तब भी थे
अमिट राग से ...
छू गयी आपकी रचना ... प्रेम के भोले एहसास से रची ... मधुर संगीत सी रचना है ....
दिल को छू लेने वाली कविता.
ReplyDeletebahut hi sundar kavita..
ReplyDeleteyun hi likhte rahein...
मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html
बीज के भीतर
ReplyDeleteवृक्ष थे तुम !!!
कुछ सम्बन्ध शाश्वत होते हैं ! महीन बुनावट के साथ कोमल कविता बधाई !!!
कम शब्दों में बहुत कुछ कह देना...आपकी रचना यही दर्शाती है
ReplyDeleteमुझे रचना बहुत पसंद आई
prem drisht roop se na ho kar bhi kahin na kahin bhitar vyapt hota hai...bahut hi suksham ahsaas ko prkt karti kavita hai...congtates
ReplyDeleteयह जो देह-अदेह के बीच प्रेम का पुल है उस पर तफरीह करना आच्डा लगता है। वहां घास की जड़ों में दरख्त और दरख्तों की फुनगियों में घास के खयाल होते हैं, हमारी शक्ति के स्रोत। अच्छी कविता के लिए बधाई।
ReplyDeleteसधे शब्दों की सुंदर प्रस्तुति......
ReplyDeleteबीज के भीतर
ReplyDeleteवृक्ष थे तुम
-गज़ब! उम्दा प्रस्तुति!
excellent !
ReplyDeleteकाश! आपकी कवितआओं-सा प्यार कर पाऊँ ज़िन्दगी को.........
ReplyDeleteअच्छी रचना ।
ReplyDeleteइस बेहतरीन रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें...इतने सुन्दर भाव और शब्दों का प्रयोग किया है आपने के बार बार वाह करने को जी कर रहा है...
ReplyDeleteनीरज
'मौन के आर्त पल मे
ReplyDeleteस्वरों का हाथ थामे
व्याप्त थे पल पल
शब्द पश्यन्ती
महाकाव्य से ....! '
*****अद्भुत!अद्भुत!!अद्भुत!!!*******
नहीं होने पे भी होने का आभास ,
ReplyDeleteकोई अनहद नाद सा अमित राग,
जो कही नहीं वो यही कही...
स्वरों का हाथ थामे मन कहीं दूर निकल गया ..
shabdon main us "tum" ki upasththi mehsus hoti hai....
ReplyDeleteदशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteसुशीला जी,
ReplyDeleteआपकी काव्य-भाषा और कविता में अनुस्यूत भावों-विचारों पर मुग्ध हूँ!
मुझे मेरी कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं-
"तुम सवालों में हो, तुम जवाबों में हो।
मेरी आँखों की इन दो किताबों में हो।"
अति सुन्दर रचना ......
ReplyDeleteरचना के लिए बधाई....
Didi Ji Bahut Sunder Rachna .Badhai
ReplyDeleteadbhut
ReplyDeleteआप सभी का तहे दिल से शुक्रिया !!!
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDelete