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Friday, August 26, 2011

चुप्पियाँ


जब बोलना निहायत जरूरी था 
कुछ लोग चुप थे 
लिपियों के लिबास में 
तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं 
लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन 
गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर 

गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ 
जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार 
गीदड़ों की हुक्का हुआं 
उल्लुओं के मनहूस स्वर 
और पता नहीं बिल्लियाँ 
रो रही थीं या गा रही थीं 

अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में 
चमगादड़ आकर लटक गये थे 
कहकहे भी थे 
दुर्गन्ध फैलाते हुये 

चोर की तरह 
सेंध लगा रहे थे कुछ शब्द 
फुसफुसाहटों में बदल चुकी थीं अस्मिताएं 
सूखने लगी थी नदी 
दरकने लगे थे पहाड़ 
चिटकने लगी थी धरती 
गर्द से भर गया था पूरा आसमान ।    

35 comments:

  1. in chuppiyon ka tootna jroori hai vrna aasman se grd kaise jhregi . khamoosh si kvita jo apne bheetar bethah arth chhupaye hai . kvita ke anuroop chitr ka chunav ek sarthk pryaas hai .

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  2. bhut sundar rachna

    vikasgarg23.blogspot.com

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  3. गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ
    जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार
    गीदड़ों की हुक्का हुआं
    उल्लुओं के मनहूस स्वर
    और पता नहीं बिल्लियाँ
    रो रही थीं या गा रही थीं ... bejod

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  4. अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में
    चमगादड़ आकर लटक गये थे
    .... खूबसूरत रचना है

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  5. जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे
    लिपियों के लिबास में
    तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं
    लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन
    गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर

    sarthak aur bhavatamak rachna ke liye aapko bahut bahut badhai ..............

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  6. bahut sundar ..
    चोर की तरह
    सेंध लगा रहे थे कुछ शब्द
    फुसफुसाहटों में बदल चुकी थीं अस्मिताएं
    सूखने लगी थी नदी
    दरकने लगे थे पहाड़
    चिटकने लगी थी धरती
    गर्द से भर गया था पूरा आसमान ।

    shbadon ko naye paridhan mein dekh kar achanbhit hain ham....

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  7. चुप्पियां पढी, पहले पाठ में अच्‍छी और असरदार कविता है, वर्तमान समय-संदर्भ में जिस बोलने या आवाज उठाने (आशय शायद समर्थन व्‍यक्‍त करने से है) की अपेक्षा है, उस पर इतना सीधे सीधे तो कुछ कह पाना कठिन है, क्‍योंकि जिस आन्‍दोन और परिस्थिति की ओर ध्‍यान दिलाया जा रहा है, वहां यह बात शायद इस रूप में लागू न हो
    क्‍योंकि वहां तो बोला ही बोला जा रहा है, सोच समझकर बोलने का तो स्‍कोप है ही कहां है। फिर कविता अपनी संवेदना और बयान में असरदार ढंग से अपनी बात कहती है।

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  8. //जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे
    लिपियों के लिबास में
    तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं //

    कविता उद्विग्न मनस की परिचाक है. अपने इंगित को परिभाषित कर उससे सार्थक संवाद बना सकने में सफल रही है. बधाइयाँ.


    सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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  9. "जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे
    लिपियों के लिबास में
    तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं
    लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन
    गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर "

    निरर्थकता के प्रति सशक्त और अच्छी पंक्तियाँ है!!

    राघव

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  10. जबरदस्त चित्रण...गहन रचना. बधाई.

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  11. कविता को किसी सामयिक घटना क्रम से जोड़ कर देखा जाए यह उचित नहीं होगा, यह तो हर पल, हर क्षण की कविता है..विरले ही बोलते हैं उन क्षणों में जब शब्द भी मूक हो जाते हैं। इन शब्दों में एक ऐसी गहरी टीस है जो हमारी सामाजिक उपस्थिति को गहन निरर्थकता बोध से भर देती है। सुशीला शब्दों के प्रति बहुत संवेदंशीलता बरतती हैं, उनका प्रयोग बहुत सोच-समझ कर और सटीक करती हैं संभवतः इसीलिए बिम्ब जीवंत हो उठते हैं।

    गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ
    जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार
    गीदड़ों की हुक्का हुआं
    उल्लुओं के मनहूस स्वर
    और पता नहीं बिल्लियाँ
    रो रही थीं या गा रही थीं
    इन दिनों बहुत उम्दा लिख रही हैं सुशीला, उनका यह योग बस चलता रहे..

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  12. Sushila ji Bahut hi Umda rachna hei aapki.
    Khubsurat bimb va pratik ka pryog aapne jis tareh ki hei bada atchha laga....

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  13. अच्छी कविता और सामयिक भी....

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  14. जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे ,,,,,,

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  15. बहुत प्रभावी ... जब शब्द अपने मायने बदलने लगते हैं तो प्रतिपर्धा शुरू हो जाती है ... पर शब्दों को बाहर आना भी जरूरी होता है ..

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  16. गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ
    जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार
    गीदड़ों की हुक्का हुआं
    उल्लुओं के मनहूस स्वर
    और पता नहीं बिल्लियाँ
    रो रही थीं या गा रही थीं
    _________________________________


    बढिया प्रयोग

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  17. bahut acche shabdo ki rachna........

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  18. शब्द-अर्थ-ध्वनि सबकुछ अद्भुत । समसामयिक । विशेषकर यह पंक्तियाँ-
    अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में
    चमगादड़ आकर लटक गये थे
    कहकहे भी थे
    दुर्गन्ध फैलाते हुये

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  19. ek sashakt kavita....

    maine socha bhav kuch badney lagey hain...
    kya kahoon ab shabd bhi ladney lagey hain...

    vijay

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  20. नवीन बिम्बों को ले कर रची अच्छी रचना ...

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  21. बहुत यत्न से आपने विचारों का ताना-बाना बुना है!
    सुन्दर रचना!

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  22. http://urvija.parikalpnaa.com/2011/08/blog-post_30.html

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  23. अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में
    चमगादड़ आकर लटक गये थे
    कहकहे भी थे
    दुर्गन्ध फैलाते हुये......सुन्दर भावपूर्ण पंक्तियाँ..शब्दॊं और भावों का सुन्दर संरचना..शुभकामनाएँ..

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  24. कुछ ऐसे ही कुछ विचार है कई दिनों से कागज में उलझे......

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  25. जी पहली बार आपके ब्लाग पर आया हूं।
    बहुत अच्छी रचना।

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  26. जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे
    लिपियों के लिबास में
    तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं
    लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन
    गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर

    लाजवाब रचना .....
    बहुत दिनों बाद अच्छी रचना पढने को मिली ....

    सुशीला जी अगर आप क्षनिकाएं लिखती हों तो दीजिएगा 'सरस्वती-सुमन' पत्रिका के लिए
    जो क्षणिका विशेषांक hogi ....
    अपने संक्षिप्त परिचय और तस्वीर के साथ ....

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  27. जब बोलना निहायत जरूरी हो, तब बोल न पाना कितना खल जाता है आपने इसे बहुत अच्छे से अभिव्यक्त किया। भूपेन्द्र हजारिका ने ऐसा ही एक गीत गाया था, दिल यूँ तड़पे, जैसे कोई गूँगा बोल न पाए।

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  28. जब बोलना निहायत जरूरी था
    कुछ लोग चुप थे ........!ऐतिहासिकता और कटु यथार्थ के ताने बाने में लिखी इस प्रभावी कविता के लिए बधाई !

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  29. आप सभी के शब्दों के आगे नतमस्तक ...!

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  30. बहुत सुन्दर रचना ..., प्रभावी कथ्य..!!

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  31. यह आपकी कविताओं का एक अलग स्‍वर है... अच्‍छा लगा... शुभकामनाओं के साथ...

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