
पिरो दिये हैं तुमने
कुछ भीगे अक्षर
बोलो ! मैं इनका क्या करूँ
जबकि ;मैं घर पर नहीं थी
और डाकिया डाल गया
एक बन्द लिफाफा
जिसके भीतर
एक नदी है
असंख्य आवेगों से भरी
उसकी बूँदों के वर्ण
लिख रहे हैं
कथा समंदर की
उसकी लहरें
समेटें हैं अपने आँचल में
झिलमिल चाँदनी
और चाँद की महक ,
अब तो इतना समय भी नहीं
कि वापस भेज दूँ नदी को
जहाँ से वो आई है
या कह दूँ कि
चलो चुपचाप बहती रहो
भीगने मत देना एक तिनका भी
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे
और धरती गीली न हो !