
जो लिपिहीन होकर
गूँजती रहती है निरंतर
अपनी व्याप्ति मे विलक्षण
उसकी लय पर
थिरकती हूँ मै अहर्निश ,
एक धुन है
जो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर ,
एक धुन है
जो नामहीन होकर
सुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
रचती रहती है मधुर स्वर ,
एक धुन है
जो डोरहीन होकर
बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।